
भगवद गीता सम्पूर्ण अध्याय (श्लोक और हिन्दी अनुवाद) | Bhagavad Gita in HindiBhaga
अध्याय 1 – अर्जुन विषाद योग
श्लोकवार हिंदी अनुवाद
श्लोक 1
धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
श्लोक 2
संजय बोले – उस समय राजा दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को व्यूहबद्ध देखकर अपने आचार्य द्रोण के पास जाकर यह वचन कहा।
श्लोक 3
हे आचार्य! द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहबद्ध की हुई इस महाबली पाण्डवों की सेना को देखिए।
श्लोक 4
इस सेना में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर, महान धनुर्धर, युयुधान, विराट तथा महारथी द्रुपद आदि हैं।
श्लोक 5
धृष्टकेतु, चेकितान, काशी का पराक्रमी राजा, पुरुजित, कुन्तिभोज और शैब्य, श्रेष्ठ पुरुष भी हैं।
श्लोक 6
युद्ध में महाबली युधामन्यु, बलवान उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं।
श्लोक 7
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष के प्रमुख वीरों को भी आप जानिए। आप जैसे, भीष्म, कर्ण और कृपाचार्य युद्ध में सदा विजयी रहते हैं।
श्लोक 8
अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भीष्मबली है। मेरे लिए और भी बहुत से शूरवीर हैं, जो प्राण देकर भी मेरा रक्षण करते हैं।
श्लोक 9
हमारी सेना भीष्म द्वारा पूर्ण रूप से संरक्षित है और उनकी शक्ति अपरिमित है। परन्तु पाण्डवों की सेना भीम द्वारा संरक्षित होकर सीमित है।
श्लोक 10
इसलिए आप सब अपने-अपने स्थानों पर दृढ़ होकर भीष्मपितामह की रक्षा कीजिए।
श्लोक 11
फिर कुरुवंश का वह वृद्ध भीष्म पितामह, सिंह के समान गर्जना करते हुए, अत्यंत ऊँचे स्वर से शंख बजाने लगे।
श्लोक 12
तब उनके शंख की ध्वनि से दुर्योधन का हृदय उल्लसित हो गया। और तत्पश्चात अचानक सब ओर से शंख, नगाड़े, ढोल, भेरी और बिगुल एक साथ बज उठे।
श्लोक 13
उन सबके मिलकर उत्पन्न किए गए भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को कंपा दिया।
श्लोक 14
इसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन ने, जो श्वेत अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर बैठे थे, अपने-अपने दिव्य शंख बजाए।
श्लोक 15
माधव ने पंचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त और भीम ने पौंड्र नामक महाशंख बजाया।
श्लोक 16
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय, नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए।
श्लोक 17
काशीराज, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट और सात्यकि ने भी अपने-अपने शंख बजाए।
श्लोक 18
द्रुपद, द्रौपदी के पाँच पुत्र और महाबली अभिमन्यु ने भी सब ओर से अपने-अपने शंख बजाकर पृथ्वी और आकाश को गुंजा दिया।
श्लोक 19
उन भयंकर ध्वनियों ने धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया।
श्लोक 20
उस समय हनुमान के चिन्ह वाला अर्जुन का रथ, जब युद्ध के लिए सज्ज था, तब उसने धनुष उठाकर हे हृषीकेश! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कीजिए – ऐसा कहा।
श्लोक 21-22
अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर दीजिए, ताकि मैं यहाँ उपस्थित युद्ध के इच्छुक योद्धाओं को देख सकूँ और जान सकूँ कि मुझे युद्ध में किससे लड़ना है।
श्लोक 23
मैं उन लोगों को देखना चाहता हूँ, जो दुर्योधन के पक्ष में युद्ध के लिए एकत्र हुए हैं और जिन्हें युद्ध में प्रिय कार्य करना है।
श्लोक 24
संजय बोले – हे भरतवंशी! हृषीकेश ने अर्जुन की बात सुनकर सुंदर रथ को भीष्म और द्रोण के सामने खड़ा कर दिया और कहा –
श्लोक 25
हे पार्थ! देखो इन कुरुओं को जो यहाँ इकट्ठे हुए हैं।
श्लोक 26
तब अर्जुन ने वहाँ खड़े पितामह, गुरुजन, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र और सगे-संबंधियों को दोनों पक्षों में देखा।
श्लोक 27
हे भरत! अर्जुन ने वहाँ उपस्थित अपने बंधु-बांधवों को देखकर करुणा से भरकर दुःख से व्याकुल होकर यह कहा।
श्लोक 28
अर्जुन बोले – हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा से उपस्थित इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है और शरीर काँप रहा है।
श्लोक 29
गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से गिर रहा है, त्वचा जल रही है, मैं खड़ा नहीं रह पा रहा और मेरा मन चक्कर खा रहा है।
श्लोक 30
हे केशव! मैं केवल अमंगल ही देख रहा हूँ। इस युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर मुझे कोई शुभफल प्राप्त नहीं होगा।
श्लोक 31
न तो मुझे विजय चाहिए, न राज्य और न ही सुख। हमें राज्य और सुख किसलिए चाहिए जब स्वयं वही लोग यहाँ खड़े हैं, जिनके लिए हम यह सब चाहते हैं।
श्लोक 32-33
हे माधव! गुरु, पितामह, पुत्र, पौत्र, मामा, ससुर, पौत्र और अन्य संबंधी—जो मेरे जीवन के लिए भी योग्य हैं—इनको मारकर भी मैं नहीं जीना चाहता।
श्लोक 34-35
हे मधुसूदन! चाहे तीनों लोकों के लिए ही क्यों न हो, मैं इन्हें मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो और भी नहीं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या सुख मिलेगा?
श्लोक 36
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें पाप ही लगेगा। अतः हमें अपने बंधु-बांधवों को मारना नहीं चाहिए।
श्लोक 37-38
यद्यपि लोभ से मोहित ये लोग कुल का नाश करने और मित्रों से वैर करने में कोई दोष नहीं देखते, परन्तु हे जनार्दन! हमें क्यों इस पाप में प्रवृत्त होना चाहिए?
श्लोक 39
कुल के नाश होने पर सनातन धर्म नष्ट हो जाता है और धर्म नष्ट होने पर अधर्म ही कुल में फैल जाता है।
श्लोक 40
जब अधर्म बढ़ता है तब कुल की स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं और स्त्रियों के भ्रष्ट होने से वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 41
वर्णसंकर परिवार को नरक में ले जाते हैं, जिससे पितरों के श्राद्ध और जल दान न मिलने से वे भी पतित हो जाते हैं।
श्लोक 42
ऐसे दोष से कुल का धर्म नष्ट होता है और वर्णसंकर बढ़ते हैं, जिससे कुल और जाति का धर्म नष्ट हो जाता है।
श्लोक 43
हे जनार्दन! जिन लोगों का धर्म नष्ट हो जाता है, वे अनिश्चितकाल तक नरक में जाते हैं—ऐसा हमने सुना है।
श्लोक 44
हाय! लोभवश राज्य और सुख की इच्छा में हम महान पाप करने के लिए तैयार हो रहे हैं, अपने ही स्वजनों को मारने के लिए।
श्लोक 45
यदि धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में अस्त्र लिए हुए मुझे युद्ध में मार दें, तब भी मैं उनसे युद्ध नहीं करना चाहता।
श्लोक 46
संजय बोले – इस प्रकार युद्धभूमि में अर्जुन ने शोक से व्याकुल होकर धनुष-बाण त्याग दिए और रथ पर बैठ गया।
श्लोक 47
करुणा और शोक से भरकर अर्जुन ने युद्ध का त्याग किया।
अध्याय 2 – सांख्य योग
श्लोक 1
संजय बोले – करुणा से व्याकुल और आँखों में आँसू भरे, शोक से दबे हुए अर्जुन से श्रीकृष्ण ने यह कहा।
श्लोक 2
श्रीभगवान ने कहा – हे अर्जुन! यह अकर्मण्यता और मोह तुम्हें कैसे आ गया? यह तो आर्य पुरुषों के योग्य नहीं है, न इससे स्वर्ग मिलता है और न कीर्ति।
श्लोक 3
हे पार्थ! यह दुर्बलता त्यागो। यह तुम्हारे योग्य नहीं है। हे पराक्रमी! उठो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
श्लोक 4
अर्जुन ने कहा – हे माधव! मैं भीष्म और द्रोण जैसे पूज्य गुरुओं पर बाण कैसे चला सकता हूँ?
श्लोक 5
गुरुओं को मारने से अच्छा है कि हम उनसे भीख माँगकर जीवन बिताएँ। उन्हें मारने पर हमारे सभी भोग रक्त और पाप से भरे होंगे।
श्लोक 6
हमें यह भी नहीं मालूम कि हमें युद्ध करना चाहिए या नहीं, और यह भी कि हम जीतेंगे या वे जीतेंगे। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर तो हम जीना भी नहीं चाहेंगे।
श्लोक 7
हे कृष्ण! मैं मोह से पीड़ित हूँ और मेरा कर्तव्य समझ में नहीं आ रहा है। मैं आपसे शिष्य की तरह पूछता हूँ – मुझे स्पष्ट उपदेश दीजिए।
श्लोक 8
मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखता जिससे मेरी इन्द्रियाँ दुःख से शांत हो जाएँ। राज्य और धन से भी यह शोक नहीं मिट सकता।
श्लोक 9
संजय बोले – इस प्रकार शोक से पीड़ित अर्जुन ने कहा कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा” और मौन हो गया।
श्लोक 10
हे भरतवंशी! तब हृषीकेश श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए शोकग्रस्त अर्जुन से बोले।
श्लोक 11
श्रीभगवान ने कहा – हे अर्जुन! तुम उन लोगों पर शोक कर रहे हो जिन पर शोक करना उचित नहीं है, और पंडिताई की बातें करते हो। ज्ञानी न जीवित पर शोक करते हैं और न मृत पर।
श्लोक 12
कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं नहीं था, तुम नहीं थे, या ये सब राजा नहीं थे। और आगे भी हम सबका अस्तित्व नष्ट नहीं होगा।
श्लोक 13
जैसे इस शरीर में बाल्यावस्था, युवावस्था और बुढ़ापा आता है, वैसे ही आत्मा को दूसरा शरीर मिलता है। ज्ञानी पुरुष इस पर मोहित नहीं होते।
श्लोक 14
हे अर्जुन! सुख-दुःख का क्षणिक अनुभव ऋतुओं के समान आता-जाता है। इनको सहन करना सीखो।
श्लोक 15
जो पुरुष सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, वही अमृतत्व का अधिकारी और मोक्ष के योग्य है।
श्लोक 16
असत का अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। तत्वदर्शियों ने इस सत्य को समझ लिया है।
श्लोक 17
जान लो कि वह अविनाशी तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। उस अक्षय आत्मा का नाश कोई नहीं कर सकता।
श्लोक 18
शरीर नाशवान है, पर आत्मा अविनाशी और शाश्वत है। इसलिए युद्ध करो।
श्लोक 19
जो सोचता है कि आत्मा मारता है या मारा जाता है – वह अज्ञानी है। आत्मा न मारता है और न मारा जाता है।
श्लोक 20
आत्मा का कभी जन्म नहीं होता और न कभी मरता है। वह अजन्मा, शाश्वत और अविनाशी है। शरीर के नाश पर भी आत्मा का नाश नहीं होता।
श्लोक 21
जो आत्मा को अविनाशी और शाश्वत जानता है, वह किसी को कैसे मार सकता है या किसी को मरवा सकता है?
श्लोक 22
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र छोड़कर नए धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है।
श्लोक 23
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है।
श्लोक 24
आत्मा अटूट, अग्नि से अजेय, जल से अविलेय और वायु से अशोष्य है। वह शाश्वत और अचल है।
श्लोक 25
आत्मा अदृश्य, अचिन्त्य और अविकारी है। यह जानकर तुम शोक नहीं करो।
श्लोक 26
यदि तुम आत्मा को नित्य जन्म लेने वाला और मरने वाला मान भी लो, तब भी शोक करने का कोई कारण नहीं है।
श्लोक 27
जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के बाद जन्म भी निश्चित है। इस पर शोक करना व्यर्थ है।
श्लोक 28
जीव का आरंभ अदृश्य है, मध्य में दृश्य है और अंत में फिर अदृश्य है। इसमें शोक क्यों?
श्लोक 29
कोई आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई सुनता है, कोई अद्भुत कहता है, फिर भी कोई उसे नहीं समझ पाता।
श्लोक 30
हे अर्जुन! आत्मा सबके शरीर में अविनाशी है। इसलिए किसी पर शोक मत करो।
श्लोक 31
अपने क्षत्रिय धर्म को देखकर तुम्हें युद्ध करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर कोई कर्तव्य नहीं है।
श्लोक 32
हे अर्जुन! ऐसा भाग्यशाली क्षत्रिय है जिसे अपने आप आया हुआ धर्मयुद्ध मिलता है, जो स्वर्ग का द्वार खोलता है।
श्लोक 33
यदि तुम इस धर्मयुद्ध को नहीं करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति को खो दोगे और पाप के भागी बनोगे।
श्लोक 34
लोग हमेशा तुम्हारी निंदा करेंगे। सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से भी बड़ा है।
श्लोक 35
महायोद्धा सोचेंगे कि तुम भय से युद्ध छोड़कर भाग गए। जो तुम्हें सम्मान देते थे, वे तुम्हें तुच्छ समझेंगे।
श्लोक 36
शत्रुजन तुम्हारी निंदा करेंगे और अपमानजनक बातें कहेंगे। तुम्हारे लिए इससे अधिक दुखदायी और क्या होगा?
श्लोक 37
यदि युद्ध में मारे गए तो स्वर्ग जाओगे और यदि जीते तो पृथ्वी पर राज्य भोगोगे। इसलिए उठो और युद्ध के लिए निश्चय करो।
श्लोक 38
सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानकर युद्ध करो। इस प्रकार युद्ध करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा।
श्लोक 39
हे पार्थ! अब तक मैंने तुम्हें सांख्य योग के अनुसार ज्ञान बताया। अब कर्मयोग बताता हूँ। इसे जानकर तुम कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे।
श्लोक 40
इस कर्मयोग में आरंभ का कोई नाश नहीं होता और थोड़े-से आचरण से भी बड़ा भय टल जाता है।
श्लोक 41
निश्चयबुद्धि वाले की केवल एक ही बुद्धि होती है, परन्तु अनिश्चय वाले की बुद्धि अनेक शाखाओं में बँट जाती है।
श्लोक 42-43
अविवेकी लोग वेदों में स्वर्ग, भोग और ऐश्वर्य की बातें करते हैं। उनकी बुद्धि भोग और वैभव में फँसी रहती है और वे एकाग्र नहीं हो पाते।
श्लोक 44
भोग और ऐश्वर्य में आसक्त लोगों की बुद्धि निश्चल नहीं रहती और वे समाधि में स्थिर नहीं हो सकते।
श्लोक 45
हे अर्जुन! वेद तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) से सम्बन्ध रखते हैं। तुम इन गुणों से ऊपर उठकर नित्य, निरपेक्ष और आत्मस्थित हो जाओ।
श्लोक 46
जैसे एक बड़े जलाशय में सब जगह की प्यास बुझ जाती है, वैसे ही वेदों का फल ज्ञानी के लिए आत्मसाक्षात्कार में समा जाता है।
श्लोक 47
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में कभी नहीं। इसलिए कर्मफल को कारण मत बनो और अकर्मण्यता में भी आसक्त मत हो।
श्लोक 48
हे अर्जुन! योग में स्थित होकर कर्म करो। सफलता और असफलता दोनों में समान भाव रखो। यही योग कहलाता है।
श्लोक 49
हे धनंजय! फल की इच्छा से किया हुआ कर्म नीच है। इसलिए बुद्धियोग से शरण लो। फल की आशा करने वाले दीन हीन होते हैं।
श्लोक 50
बुद्धियोग से युक्त व्यक्ति पुण्य-पाप से मुक्त होकर परम शांति को प्राप्त होता है।
श्लोक 51
ज्ञानीजन फल की इच्छा त्यागकर कर्म करते हैं और जन्मबंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 52
जब तुम्हारी बुद्धि मोह से पार हो जाएगी, तब तुम वेदों की सुनी-सुनाई बातों से भी उदासीन हो जाओगे।
श्लोक 53
जब तुम्हारी बुद्धि समाधि में अचल हो जाएगी, तब तुम्हें योग प्राप्त होगा।
श्लोक 54
अर्जुन ने पूछा – समाधिस्थ मनुष्य का लक्षण क्या है? वह कैसा बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
श्लोक 55
श्रीभगवान ने कहा – जब मनुष्य सभी इच्छाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट हो जाता है, वही स्थिरबुद्धि कहलाता है।
श्लोक 56
जिसे दुःख विचलित नहीं करता, सुख में जो आसक्त नहीं होता और राग-द्वेष से रहित होता है – वही स्थिरबुद्धि है।
श्लोक 57
जो आसक्ति, राग-द्वेष रहित होकर शुभ और अशुभ दोनों को समान भाव से देखता है, वही ज्ञानी है।
श्लोक 58
जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटा लेता है, वही स्थिरबुद्धि है।
श्लोक 59
इन्द्रियों को विषयों से हटाकर भी उनमें रस रह जाता है, परन्तु ब्रह्म का अनुभव होने पर वह रस भी नष्ट हो जाता है।
श्लोक 60
हे अर्जुन! इन्द्रियाँ बलवान हैं, ये विवेकशील साधक की भी बुद्धि को बलपूर्वक हटा लेती हैं।
श्लोक 61
जो इन्द्रियों को वश में करके मुझमें स्थित रहता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
श्लोक 62
विषयों के चिंतन से आसक्ति होती है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, और कामना से क्रोध पैदा होता है।
श्लोक 63
क्रोध से मोह होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति से बुद्धि नष्ट होती है और बुद्धि नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है।
श्लोक 64
परन्तु जो व्यक्ति राग-द्वेष से रहित होकर विषयों में चलता है और इन्द्रियों को वश में रखता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है।
श्लोक 65
शांतचित्त मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है, उसके सारे दुख नष्ट हो जाते हैं और उसका हृदय पवित्र हो जाता है।
श्लोक 66
अशांत मनुष्य के लिए न तो ज्ञान होता है, न भक्ति, न ही सुख। अशांत मनुष्य कभी आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता।
श्लोक 67
जैसे हवा से नाव बह जाती है, वैसे ही इन्द्रियों में से कोई एक भी चंचल हो जाए तो बुद्धि को बहा ले जाती है।
श्लोक 68
इसलिए, हे महाबली! जिसकी इन्द्रियाँ विषयों से हटकर वश में रहती हैं, वही स्थिरबुद्धि कहलाता है।
श्लोक 69
जो सबके लिए रात्रि है, उसमें संयमी साधक जागता है। और जिसमें सब जागते हैं, वह आत्मज्ञानी के लिए रात्रि के समान है।
श्लोक 70
जैसे नदियाँ समुद्र में प्रवेश करती हैं और समुद्र न विचलित होता है न भरता है, वैसे ही इच्छाएँ उसमें लीन हो जाती हैं, वही शांति को प्राप्त करता है।
श्लोक 71
जो कामनाओं को त्यागकर, बिना अहंकार और ममता के, शांत रहता है, वही परम शांति को पाता है।
श्लोक 72
हे अर्जुन! यह है ब्रह्मस्थित पुरुष की स्थिति। इसे प्राप्त कर मृत्यु के समय भी मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है।
अध्याय 3 – कर्मयोग (श्रीमत् भगवद्गीता)
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे जनार्दन! यदि आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे इस भयानक युद्ध में क्यों लगाते हैं?
श्लोक 2
आपके वचनों से मेरा मोह दूर करने के लिए एक ही निश्चित मार्ग बताइए, क्योंकि आपके वचनों में मुझे विरोधाभास प्रतीत होता है।
श्लोक 3
श्रीभगवान ने कहा — हे निष्पाप अर्जुन! पहले भी मैंने कहा था कि इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ हैं — ज्ञानयोग द्वारा सांख्ययोगियों की और कर्मयोग द्वारा योगियों की।
श्लोक 4
कर्मों का त्याग करके मात्र संन्यास लेने से कोई कर्मफल से मुक्त नहीं होता और केवल त्याग करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती।
श्लोक 5
कोई भी पुरुष क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा सब लोग अनिवार्यतः कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं।
श्लोक 6
जो मन से इन्द्रियों को रोककर बैठा है, परन्तु मन में इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहलाता है।
श्लोक 7
परन्तु जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके, इन्द्रियों द्वारा आसक्तिरहित होकर नियमपूर्वक कर्म करता है, वही श्रेष्ठ है।
श्लोक 8
कर्म करना तेरा कर्तव्य है, क्योंकि कर्म त्यागने से शरीर का पालन भी सम्भव नहीं है।
श्लोक 9
यज्ञार्थ कर्म करने से मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त होता है, अन्यथा स्वार्थ के लिए किया गया कर्म उसे बाँधता है।
श्लोक 10
सृष्टि के आरम्भ में प्रजापति ने प्रजा और यज्ञ को रचकर कहा — इससे तुम वृद्धि करो और यह यज्ञ तुम्हें कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होगा।
श्लोक 11
देवताओं को यज्ञ से पोषित करो और वे देवता तुम्हें पोषण देंगे; इस प्रकार एक-दूसरे का पोषण करके तुम परमकल्याण प्राप्त करोगे।
श्लोक 12
देवताओं से पोषित होकर जो मनुष्य उनको अर्पण किए बिना भोग करता है, वह चोर है।
श्लोक 13
यज्ञशेष अन्न खानेवाले पापों से मुक्त होते हैं; परन्तु जो लोग स्वयं के लिए ही पकाते हैं, वे पाप खाते हैं।
श्लोक 14
अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
श्लोक 15
कर्म वेद से उत्पन्न है और वेद अविनाशी ब्रह्म से; इस प्रकार सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदा स्थित है।
श्लोक 16
जो इस कर्मचक्र को नहीं चलाता और इन्द्रियों के भोग में ही लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है।
श्लोक 17
परन्तु जो आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
श्लोक 18
ऐसे पुरुष के लिए इस संसार में कोई काम नहीं है, न तो उसे कुछ करना है और न कुछ न करना है।
श्लोक 19
अतः तू आसक्ति त्यागकर कर्तव्यकर्म कर, क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करने से मनुष्य परमपद को प्राप्त होता है।
श्लोक 20
जनक आदि राजाओं ने कर्म करके ही सिद्धि प्राप्त की; इसलिए तू भी लोकसंग्रह के लिए कर्म कर।
श्लोक 21
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, वैसे ही सामान्य लोग भी करते हैं; वह जो उदाहरण प्रस्तुत करता है, लोग उसी का अनुसरण करते हैं।
श्लोक 22
हे पृथापुत्र! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है, न प्राप्त करने योग्य कुछ भी शेष है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ।
श्लोक 23
यदि मैं कर्म न करूँ तो हे पार्थ! मनुष्य सब प्रकार से मेरा अनुसरण करेंगे।
श्लोक 24
यदि मैं कर्म करना छोड़ दूँ तो ये लोक नष्ट हो जाएँगे, और मैं संकरता (वर्णसंकर) का कारण बन जाऊँगा।
श्लोक 25
अविद्वान लोग आसक्ति से कर्म करते हैं, वैसे ही विद्वान पुरुष भी लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करते हैं।
श्लोक 26
विद्वान पुरुष अज्ञानी लोगों को कर्मत्याग में न लगाएँ, बल्कि स्वयं कर्म करते हुए उन्हें कर्म में लगाएँ।
श्लोक 27
प्रकृति के गुणों से उत्पन्न कर्मों में वास्तव में आत्मा कर्ता नहीं है, परन्तु अज्ञान से मोहित मनुष्य सोचता है कि ‘मैं कर्ता हूँ’।
श्लोक 28
परन्तु जो तत्त्वज्ञानी है, वह गुणों और कर्मों का भेद जानकर आसक्तिरहित रहता है और सोचता है कि ‘गुण ही गुणों में प्रवृत्त हो रहे हैं’।
श्लोक 29
जो अज्ञानी प्रकृति के गुणों में आसक्त हैं, उन्हें गुणकर्म में आसक्त न कर, परन्तु ज्ञानी होकर उनका मार्गदर्शन कर।
श्लोक 30
हे अर्जुन! सब कर्म मुझे अर्पण करके, मन में ममता और आसक्ति त्यागकर युद्ध कर।
श्लोक 31
जो मेरे इस मत का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे भी कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं।
श्लोक 32
परन्तु जो ईर्ष्या से इस उपदेश का पालन नहीं करते, वे सब ज्ञानरहित होकर नष्ट हो जाते हैं।
श्लोक 33
सभी प्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं; दमन करके भी कोई अपनी प्रकृति का त्याग नहीं कर सकता।
श्लोक 34
इन्द्रियों के विषयों में राग और द्वेष स्थित हैं, परन्तु कोई उन दोनों के वश में न हो, क्योंकि वे शत्रु हैं।
श्लोक 35
अपने स्वधर्म का पालन करना, चाहे वह गुणहीन हो, परधर्म से श्रेष्ठ है; परधर्म भयप्रद है।
श्लोक 36
अर्जुन ने कहा — हे वृष्णिनन्दन! मनुष्य इच्छा न होते हुए भी पाप क्यों करता है? कौन-सा बल उसे बाध्य करता है?
श्लोक 37
भगवान ने कहा — यह काम है, जो रजोगुण से उत्पन्न है और क्रोध है, जो सब कुछ भस्म करनेवाला है; इसे तू यहाँ शत्रु जान।
श्लोक 38
जैसे धुआँ अग्नि को, धूल दर्पण को और गर्भ गर्भस्थ शिशु को ढक लेता है, वैसे ही काम ज्ञान को ढक लेता है।
श्लोक 39
काम इस प्रकार बुद्धिमान के ज्ञान को ढककर उसे भ्रमित करता है।
श्लोक 40
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि — ये उसके स्थान कहे गए हैं; इनके द्वारा काम ज्ञान को ढककर जीव को मोहित करता है।
श्लोक 41
अतः हे भारत! पहले इन्द्रियों को वश में करके इस पापरूपी काम को नष्ट कर।
श्लोक 42
इन्द्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ है, बुद्धि मन से श्रेष्ठ है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है।
श्लोक 43
इस प्रकार आत्मा को जानकर और मन को स्थिर करके तू कामरूप शत्रु को जीत ले।
अध्याय 4 – ज्ञानकर्मसंन्यास योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — मैंने इस अविनाशी योग को पहले सूर्य को कहा था; सूर्य ने मनु से कहा और मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।
श्लोक 2
ऐसे परम्परा से इसे राजर्षियों ने जाना, परन्तु कालक्रम से यह योग पृथ्वी पर लुप्त हो गया।
श्लोक 3
हे अर्जुन! वही प्राचीन योग आज मैं तुझे कह रहा हूँ, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है।
श्लोक 4
अर्जुन ने कहा — आप जन्म से बहुत पहले हैं और सूर्य का जन्म बहुत पहले हो चुका है; तो फिर आपने यह योग सूर्य से पहले कैसे कहा?
श्लोक 5
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; मैं सबको जानता हूँ, परन्तु तू नहीं जानता।
श्लोक 6
यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ और समस्त प्राणियों का ईश्वर हूँ, फिर भी अपनी प्रकृति से प्रकट होकर अपनी शक्ति द्वारा जन्म लेता हूँ।
श्लोक 7
जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ।
श्लोक 8
साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।
श्लोक 9
जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म को यथार्थ रूप में जानता है, वह शरीर त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता, बल्कि मुझे प्राप्त होता है।
श्लोक 10
राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें लीन होकर और मुझमें शरण लेकर बहुत से लोग ज्ञान से पवित्र होकर मेरी स्थिति को प्राप्त हुए हैं।
श्लोक 11
जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं भी वैसे ही उन्हें फल देता हूँ; सभी लोग मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
श्लोक 12
यहाँ जो लोग कर्मफल की इच्छा रखते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि शीघ्र फल देनेवाला कर्म देवताओं से मिलता है।
श्लोक 13
गुण और कर्म के भेद से मैंने चार वर्णों की रचना की है; यद्यपि मैं इसका कर्ता हूँ, परन्तु मैं अकर्ता और अविनाशी हूँ।
श्लोक 14
कर्म मुझे नहीं बाँधता और न ही मैं कर्मफल की इच्छा करता हूँ; जो मुझे इस प्रकार जानता है, वह भी कर्मफल से मुक्त होता है।
श्लोक 15
प्राचीन काल में भी ऐसा जानकर कर्म करनेवाले मुनि मुक्त हुए; इसलिए तू भी पहले लोगों की तरह ही कर्म कर।
श्लोक 16
कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसे बुद्धिमान लोग भी समझने में भ्रमित होते हैं; इसलिए मैं तुझे कर्म का सत्य बताऊँगा।
श्लोक 17
कर्म, अकर्म और विकर्म — इनका भलीभाँति विचार करना चाहिए, क्योंकि कर्म का मार्ग गूढ़ है।
श्लोक 18
जो पुरुष अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म देखता है, वह बुद्धिमान है और योगी है।
श्लोक 19
जिसके सब कर्म आसक्ति-रहित हैं और जिनके कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में भस्म हो चुके हैं, उसे विद्वान कहते हैं।
श्लोक 20
जो पुरुष कर्मफल की इच्छा त्यागकर, सदा तृप्त और नित्य अनासक्त है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।
श्लोक 21
जो पुरुष बिना स्वामित्व की भावना के, शरीर और मन को वश में करके, केवल जीवन निर्वाह के लिए कर्म करता है, उसका पाप नष्ट हो जाता है।
श्लोक 22
जो कुछ आता है उसमें संतुष्ट, द्वन्द्वातीत, ईर्ष्या-रहित, समभाव से युक्त और सफलता-असफलता में समान है — वह कर्म करता हुआ भी बंधन में नहीं पड़ता।
श्लोक 23
जिसके सारे कर्म आसक्ति-रहित और ज्ञानरूपी अग्नि में भस्म हो चुके हैं, उसे ज्ञानी कहते हैं।
श्लोक 24
यज्ञ रूप ही ब्रह्म है, आहुति भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है और आहुति देनेवाला भी ब्रह्म है; इस प्रकार जो सब कर्मों में ब्रह्म को देखता है, वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।
श्लोक 25
कुछ योगी देवताओं को यज्ञ रूप में पूजते हैं और अन्य योगी ब्रह्माग्नि में यज्ञ रूप से आहुति देते हैं।
श्लोक 26
कुछ लोग इन्द्रियों को संयम करके इन्द्रियों का यज्ञ करते हैं, और कुछ लोग इन्द्रियों के विषयों का यज्ञ करते हैं।
श्लोक 27
कुछ योगी प्राणों को प्राण में और प्राण को अपान में अर्पित करते हैं।
श्लोक 28
कुछ लोग धन, तप और योगाभ्यास का यज्ञ करते हैं; कुछ लोग वेदाध्ययन और ज्ञान का यज्ञ करते हैं।
श्लोक 29
कुछ लोग प्राणायाम के द्वारा प्राण और अपान का यज्ञ करते हैं।
श्लोक 30
अन्य लोग संयमित आहार द्वारा यज्ञ करते हैं और सभी लोग यज्ञ से पापों से मुक्त होते हैं।
श्लोक 31
यज्ञ से पवित्र हुए योगी अमृत रूपी परमात्मा को प्राप्त होते हैं; यज्ञरहित मनुष्य न तो इस लोक को पाता है और न परलोक को।
श्लोक 32
हे परन्तप! इस प्रकार अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख से प्रकट हुए हैं; इन्हें जानकर तू कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा।
श्लोक 33
ज्ञानयज्ञ सभी द्रव्ययज्ञों से श्रेष्ठ है, क्योंकि सभी कर्म ज्ञान में ही पूर्ण होते हैं।
श्लोक 34
ज्ञान प्राप्त करने के लिए तू विनम्रता, प्रश्न और सेवा से ज्ञानी पुरुषों का शरण ले; वे तुझे ज्ञान का उपदेश देंगे।
श्लोक 35
जब तू इसे जान लेगा, तब फिर कभी मोह में नहीं पड़ेगा और सभी प्राणियों में एक ही आत्मा को देखेगा।
श्लोक 36
यदि तू पापी लोगों में भी महान पापी है, तो भी ज्ञान रूपी नौका से सब पाप पार हो जाएँगे।
श्लोक 37
जैसे प्रज्वलित अग्नि इंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है।
श्लोक 38
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करनेवाली कोई वस्तु नहीं है; यह योगयुक्त आत्मा को अंतःकरण में स्वतः प्रकट होता है।
श्लोक 39
श्रद्धावान, संयमी और ज्ञानेन्द्रिय पर संयम रखनेवाला पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है, और ज्ञान प्राप्त करके वह शीघ्र परमशांति को पाता है।
श्लोक 40
अज्ञानी, अविश्वासी और संशयी पुरुष नष्ट होता है; संशयी का न तो यह लोक है, न परलोक और न सुख।
श्लोक 41
कर्मों का त्याग करनेवाला, आत्मसंयमी और संदेह रहित पुरुष ज्ञान से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 42
अतः हे भारत! अज्ञान से उत्पन्न संदेह को अपने हृदय से ज्ञानरूपी शस्त्र द्वारा नष्ट कर और योग में स्थित होकर उठ खड़ा हो।
अध्याय 5 – संन्यास योग (श्रीमद्भगवद्गीता)
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे कृष्ण! आप कभी संन्यास की प्रशंसा करते हैं और कभी कर्मयोग की। कृपा करके मुझे स्पष्ट बताइए कि दोनों में से कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है?
श्लोक 2
भगवान ने कहा — संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष देने वाले हैं, परन्तु कर्मयोग संन्यास से श्रेष्ठ है।
श्लोक 3
जो न तो द्वेष करता है और न किसी से आसक्त होता है, वह सच्चा संन्यासी है। ऐसा पुरुष सहज ही बंधन से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 4
मूर्ख लोग सांख्य और योग को अलग मानते हैं; परन्तु ज्ञानी समझते हैं कि दोनों का फल एक ही है।
श्लोक 5
जो पुरुष सांख्य और योग में से किसी एक मार्ग से पूर्णता प्राप्त कर लेता है, वह दोनों का फल पाता है।
श्लोक 6
केवल संन्यास से मुक्ति नहीं मिलती; बल्कि जिसने कर्मयोग द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया है, वही शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त होता है।
श्लोक 7
जो शुद्ध आत्मा वाला, आत्मसंयमी और सभी प्राणियों में समदृष्टि रखता है, वह कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता।
श्लोक 8–9
जो पुरुष तत्त्वज्ञानी है, वह जानता है कि — ‘मैं कुछ नहीं करता’; देखना, सुनना, छूना, खाना, सोना, बोलना, चलना, श्वास लेना, आँख झपकना — ये सब इन्द्रियाँ ही करती हैं।
श्लोक 10
जो पुरुष सब कर्मों को ब्रह्म को अर्पित करता है और आसक्ति रहित रहता है, वह पाप से वैसे ही अछूता रहता है जैसे कमलपत्र जल से।
श्लोक 11
योगीजन शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से केवल आत्मशुद्धि के लिए आसक्ति रहित कर्म करते हैं।
श्लोक 12
कर्मफल का त्याग करनेवाला पुरुष परमशांति प्राप्त करता है, जबकि आसक्त पुरुष फल की इच्छा से बंध जाता है।
श्लोक 13
आत्मसंयमी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीर में रहते हुए भी कुछ नहीं करता और न किसी से करवाता है।
श्लोक 14
ईश्वर न तो किसी के कर्मों का कर्ता है, न कर्मों का फलदाता; बल्कि सब कुछ प्रकृति ही करती है।
श्लोक 15
ईश्वर न किसी के पाप को ग्रहण करता है और न किसी की पुण्य को; परन्तु ज्ञान के आच्छादित होने से प्राणी मोहित होते हैं।
श्लोक 16
परन्तु जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है और जिनका ज्ञान प्रकाशित हुआ है, उनका ज्ञान सूर्य की भाँति परम सत्य को प्रकट करता है।
श्लोक 17
जिनका मन तत्त्व में लीन है, जिनका संदेह नष्ट हो गया है और जो सत्य में स्थित हैं, वे कर्मों से मुक्त हो जाते हैं।
श्लोक 18
ज्ञानीजन विद्वान ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समान दृष्टि रखते हैं।
श्लोक 19
जो लोग समदर्शी हैं, वे इस संसार में रहते हुए भी जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 20
जो व्यक्ति सुख-दुःख में असक्त है, आसक्ति से रहित है और ज्ञान में स्थित है, वह स्थिरचित्त और मुक्त कहलाता है।
श्लोक 21
जो पुरुष बाहरी विषयों में सुख नहीं खोजता, बल्कि आत्मा में आनंद पाता है, वह ब्रह्मानंद को प्राप्त होता है।
श्लोक 22
बाह्य विषयों से उत्पन्न सुख दुःखजनक और नश्वर होता है; ज्ञानी उसमें आनंद नहीं लेते।
श्लोक 23
जो पुरुष शरीर के रहते हुए ही काम और क्रोध को जीत लेता है, वह सुखी और योगी है।
श्लोक 24
जो भीतर आनंद, भीतर प्रकाश और भीतर ही आनन्दमय है, वह योगी ब्रह्म को प्राप्त होता है।
श्लोक 25
जो पापरहित हैं, आत्मसंयमी हैं और सभी प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 26
जो पुरुष राग और क्रोध से मुक्त हैं और आत्मसंयमी हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 27–28
जो पुरुष बहिर्मुखी इन्द्रियों को रोककर, दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर करके, प्राण और अपान को सम करनेवाले, इन्द्रियों, मन और बुद्धि को संयमित करके, मोक्ष की इच्छा रखनेवाले हैं — वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 29
जो पुरुष मुझे सब यज्ञों और तप का भोक्ता, सब लोकों का महेश्वर और सभी प्राणियों का हितैषी जानता है, वह शांति को प्राप्त करता है।
अध्याय 6 – ध्यान योग (श्रीमद्भगवद्गीता)
श्लोक 1
भगवान ने कहा — जो पुरुष कर्मफल की इच्छा नहीं करता और न कर्मों से आसक्त होता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है, केवल अग्नि त्याग करने वाला नहीं।
श्लोक 2
जो कर्मों का त्याग करता है, वही सच्चा योगी और संन्यासी है; बिना कर्मयोग के कोई भी योगी नहीं बन सकता।
श्लोक 3
आत्मोद्धार की इच्छा रखनेवाले पुरुष के लिए कर्मयोग साधन है, और समाधिस्थ पुरुष के लिए योग का त्याग साधन है।
श्लोक 4
जब मनुष्य कर्मफल का त्याग करके कर्म में आसक्ति नहीं रखता, तब वह योगी कहलाता है।
श्लोक 5
मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा ही उद्धार करना चाहिए, स्वयं को गिराना नहीं चाहिए; क्योंकि स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही शत्रु।
श्लोक 6
जिसने मन को जीत लिया है, उसका मन मित्र है; परन्तु जिसने मन को नहीं जीता, उसका वही मन शत्रु है।
श्लोक 7
जिसने मन को जीत लिया है, वह आत्मा में स्थित है, सुख-दुःख में, शीत-उष्ण में और मान-अपमान में सम है।
श्लोक 8
जो ज्ञान और विज्ञान से संतुष्ट है, इन्द्रियों को जीत चुका है, द्वन्द्वातीत है और सफलता-असफलता में सम है, वह योगी कहलाता है।
श्लोक 9
जो मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, बन्धु, साधु और पापी — सभी में समभाव रखता है, वही श्रेष्ठ योगी है।
श्लोक 10
योगी को अकेला, एकांत स्थान में, संयमी, मन और शरीर पर नियंत्रण रखते हुए और इच्छाओं से रहित होकर ध्यान में स्थित होना चाहिए।
श्लोक 11–12
योगी को शुद्ध स्थान पर आसन बिछाकर, न बहुत ऊँचा न बहुत नीचा, कुश, मृगछाला और वस्त्र रखकर स्थिर बैठना चाहिए और मन को शुद्ध करके आत्मसिद्धि के लिए ध्यान करना चाहिए।
श्लोक 13–14
शरीर, सिर और गर्दन को सीधा रखकर, न कहीं देखना, न इधर-उधर, मन को शान्त करके, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, मुझमें मन को स्थिर करना चाहिए।
श्लोक 15
इस प्रकार मन को मुझमें स्थित करके निरंतर योगाभ्यास करने वाला योगी परमशांति को प्राप्त होता है।
श्लोक 16
योगी न तो अत्यधिक खानेवाला है, न अत्यधिक उपवास करनेवाला; न अधिक सोनेवाला है, न जागरण करनेवाला।
श्लोक 17
जो आहार, व्यवहार, कर्म, निद्रा और जागरण में संयमित है, उसका योग दुःखनाशक होता है।
श्लोक 18
जब योगी मन और इन्द्रियों को वश में करके, मन को आत्मा में स्थिर करता है, तब वह योग में स्थित कहलाता है।
श्लोक 19
जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, वैसे ही योगी का मन आत्मा में स्थिर रहता है।
श्लोक 20–21
जब मन आत्मा में लीन होकर आत्मा का साक्षात्कार करता है, तब वह परम संतोष और असीम सुख को प्राप्त करता है।
श्लोक 22
जो सुख किसी अन्य से नहीं मिलता, वह आत्मा में लीन होकर प्राप्त होता है और वह योगी उससे कभी विचलित नहीं होता।
श्लोक 23
जो दुःखनाशक और मोह रहित स्थिति है, उसे योग कहते हैं; इस योग को दृढ़निश्चय से करना चाहिए।
श्लोक 24–25
सभी इच्छाओं और मन के विकारों को त्यागकर, धीरे-धीरे मन को आत्मा में स्थित करके, स्थिरबुद्धि से योगाभ्यास करना चाहिए।
श्लोक 26
जहाँ-जहाँ चंचल मन भटके, वहाँ-वहाँ उसे वश में करके आत्मा में ही स्थिर करना चाहिए।
श्लोक 27
योगी को परमशांति प्राप्त होती है, जो कामना रहित है और आत्मा में स्थिर होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है।
श्लोक 28
जिसका मन शुद्ध है, पाप नष्ट हो गए हैं, आत्मसंयमी है और सब प्राणियों में समभाव रखता है, वह योगी ब्रह्म को प्राप्त करता है।
श्लोक 29
योगी सभी प्राणियों में आत्मा को और आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है।
श्लोक 30
जो मुझे सभी प्राणियों में देखता है और सभी प्राणियों को मुझमें देखता है, वह मुझसे कभी विच्छिन्न नहीं होता।
श्लोक 31
जो पुरुष मुझे सर्वव्यापी मानकर पूजता है, वह योगी मुझमें स्थित रहता है।
श्लोक 32
जो योगी सुख-दुःख को समान रूप से देखता है, वही श्रेष्ठ माना जाता है।
श्लोक 33
अर्जुन ने कहा — हे मधुसूदन! योगियों में कौन श्रेष्ठ है — जो श्रद्धा से आपको भजते हैं या जो निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करते हैं?
श्लोक 34
भगवान ने कहा — जो मुझे श्रद्धा से भजते हैं और मन को मुझमें लगाते हैं, वे योगियों में श्रेष्ठ हैं।
श्लोक 35
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से श्रेष्ठ है और कर्मियों से भी श्रेष्ठ है; इसलिए तू योगी बन।
श्लोक 36
और योगियों में भी जो श्रद्धा से मुझे भजता है, वही मुझसे एकीकृत होता है और वही श्रेष्ठतम योगी है।
अध्याय 7 – ज्ञान-विज्ञान योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! मुझमें मन लगाकर, मुझमें आसक्त होकर योग का अभ्यास कर; इस प्रकार तू मुझे संपूर्ण रूप से जान लेगा।
श्लोक 2
अब मैं तुझे यह सम्पूर्ण ज्ञान और विज्ञान बताऊँगा, जिसे जानकर कुछ भी शेष जानने योग्य नहीं रहेगा।
श्लोक 3
हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि की इच्छा करता है और सिद्ध पुरुषों में कोई एक ही मुझे तत्व से जानता है।
श्लोक 4
मेरी आठ प्रकार की प्रकृति है — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार।
श्लोक 5
इसके अतिरिक्त मेरी दूसरी, जीवात्मा रूपी उच्चतर प्रकृति है, जो इस जड़ प्रकृति को धारण करती है।
श्लोक 6
हे अर्जुन! सब प्राणी इन दोनों प्रकृतियों से उत्पन्न हुए हैं; मैं ही समस्त जगत का आदि और अंत हूँ।
श्लोक 7
मेरे समान दूसरा कुछ भी नहीं है; सब कुछ माला में पिरोए हुए मोतियों की तरह मुझमें स्थित है।
श्लोक 8
मैं ही जल का रस हूँ, सूर्य और चन्द्र का प्रकाश हूँ, वेदों में ॐकार हूँ, आकाश में शब्द हूँ और मनुष्यों में पुरुषत्व हूँ।
श्लोक 9
मैं पवित्र गन्ध हूँ, अग्नि की ऊष्मा हूँ, सब प्राणियों का जीवन हूँ और तपस्वियों का तप हूँ।
श्लोक 10
हे अर्जुन! मैं ही सब प्राणियों का बीज हूँ; मैं ही बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।
श्लोक 11
हे भरतश्रेष्ठ! मैं बल हूँ, जो आसक्ति और इच्छा रहित है; और मैं धर्मसम्मत कामना हूँ।
श्लोक 12
सत्त्व, रज और तम — ये तीनों गुण मुझसे उत्पन्न हैं; परन्तु वास्तव में मैं उनमें नहीं हूँ, वे ही मुझमें हैं।
श्लोक 13
तीन गुणों से उत्पन्न मोह इस संसार को मोहित करता है; इसलिए लोग मुझे नहीं जानते, जो सबको पार करनेवाला हूँ।
श्लोक 14
यह मेरी दैवी माया तीन गुणों से बनी है, जिसे पार करना कठिन है; परन्तु जो मेरी शरण लेते हैं, वे इसे पार कर जाते हैं।
श्लोक 15
जो मूर्ख, पापात्मा, दुष्ट और आसुरी स्वभाव वाले लोग हैं, वे मुझे नहीं भजते।
श्लोक 16
हे अर्जुन! चार प्रकार के लोग मेरी भक्ति करते हैं — दुखी, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी।
श्लोक 17
इनमें ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मुझमें नित्य एकीभाव से जुड़ा हुआ है; मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे।
श्लोक 18
सभी भक्त महात्मा हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरे ही स्वरूप है; इसलिए वह विशेष रूप से पूजनीय है।
श्लोक 19
बहुत जन्मों के बाद ज्ञानी मुझे सबका कारण मानकर शरण लेता है; ऐसा महात्मा दुर्लभ है।
श्लोक 20
जो लोग अपनी इच्छाओं से विवेकहीन हो जाते हैं, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उनका पालन करते हैं।
श्लोक 21
मैं ही उनके श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, ताकि वे श्रद्धा से उस देवता की पूजा करें।
श्लोक 22
उस देवता की पूजा करके वे अपनी कामनाओं को प्राप्त करते हैं, परन्तु वास्तव में वह सब कुछ मुझे ही प्राप्त होता है।
श्लोक 23
परन्तु अल्पबुद्धि लोग देवताओं को पूजते हैं, क्योंकि देवताओं की प्राप्ति सीमित फल देती है; देवता-पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे।
श्लोक 24
अज्ञानी लोग मुझे अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं; वे मेरी इस सर्वोच्च, अविनाशी, परमात्मा रूप स्थिति को नहीं जानते।
श्लोक 25
मैं अपनी योगमाया से सबके लिए आच्छादित हूँ, इसलिए मूर्ख लोग मुझे नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ।
श्लोक 26
हे अर्जुन! मैं सब प्राणियों को जानता हूँ — अतीत, वर्तमान और भविष्य के; परन्तु कोई मुझे नहीं जानता।
श्लोक 27
राग और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वों के कारण सब प्राणी मोह में पड़ जाते हैं।
श्लोक 28
परन्तु जिन लोगों के पाप नष्ट हो गए हैं और जिन्होंने पुण्यकर्म किया है, वे मोह से मुक्त होकर मेरी भक्ति में स्थिर होते हैं।
श्लोक 29
जो लोग मुझे भजते हैं और जन्म-मरण से मुक्त होना चाहते हैं, वे ब्रह्म, अद्भुत आत्मा और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।
श्लोक 30
जो पुरुष मुझे अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के रूप में जानते हैं, वे मुझको स्मरण करते हुए मृत्यु समय भी मुझे जानते हैं।
अध्याय 8 – अक्षर ब्रह्म योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? और अधिभूत किसे कहते हैं? अधिदैव किसे कहते हैं?
श्लोक 2
हे मधुसूदन! अधियज्ञ किसे कहते हैं? और वह शरीर में किस प्रकार है? तथा मरण के समय आपको किस प्रकार जानने वाले योगी को आप जानते हैं?
श्लोक 3
भगवान ने कहा — ब्रह्म अविनाशी परम है; स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है और प्राणियों के द्वारा किये जाने वाले कर्म को कर्म कहते हैं।
श्लोक 4
हे अर्जुन! नश्वर शरीरों का अधिभूत तत्व क्षेत्र है; पुरुष ही अधिदैव है और मैं ही इस शरीर में अधियज्ञ हूँ।
श्लोक 5
जो कोई मरण समय मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होता है।
श्लोक 6
हे कुन्तीपुत्र! जो जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है।
श्लोक 7
इसलिए हे अर्जुन! तू सदा मेरा ही स्मरण करता हुआ युद्ध कर; मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करके तू निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा।
श्लोक 8
जो पुरुष निरंतर योगाभ्यास करता हुआ, मुझे ही चिन्तन करता है, वह मुझे प्राप्त होता है।
श्लोक 9
जो योगी सर्वज्ञ, सनातन, सर्वनियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और सबका पालन करने वाले, अचिन्त्य, सूर्य के समान तेजस्वी उस परमपुरुष का स्मरण करता है—
श्लोक 10
मृत्यु समय, अचल मन और भक्ति से युक्त होकर प्राण को भ्रूमध्य में स्थिर कर स्मरण करता है, वह परम पुरुष को प्राप्त होता है।
श्लोक 11
जो वेदवित् ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले ऋषि ओंकार का उच्चारण करते हुए परलोकगमन करते हैं, उस अव्यक्त अक्षर को मैं तुझे संक्षेप में कहूँगा।
श्लोक 12
सब द्वार बन्द करके, मन को हृदय में स्थित करके और प्राण को सिर पर स्थिर करके जो पुरुष योगाभ्यास करता है—
श्लोक 13
जो पुरुष ‘ॐ’ इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके, मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।
श्लोक 14
जो पुरुष निरंतर और अनन्य भाव से मुझे स्मरण करता है, वह योगी मुझे सहज ही प्राप्त होता है।
श्लोक 15
जो महात्मा मुझे प्राप्त करते हैं, वे इस दुःखमय संसार में पुनः नहीं जन्मते, क्योंकि उन्होंने परमसिद्धि प्राप्त कर ली है।
श्लोक 16
हे अर्जुन! ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनर्जन्म के अधीन हैं; परन्तु जो मुझे प्राप्त करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
श्लोक 17
ब्रह्मा का एक दिन सहस्र युगों के बराबर है और उसकी रात भी सहस्र युगों के बराबर है— इसे जानने वाले ही दिन-रात्रि का रहस्य जानते हैं।
श्लोक 18
उस दिन में समस्त प्राणी प्रकट होते हैं और रात में लीन हो जाते हैं।
श्लोक 19
बार-बार यही प्राणी प्रकट होते हैं और रात होने पर अनायास लीन हो जाते हैं।
श्लोक 20
परन्तु उससे परे एक और अव्यक्त धाम है, जो अविनाशी है; सभी प्राणी नाश हो जाने पर भी वह अव्यक्त अविनाशी रहता है।
श्लोक 21
उस अव्यक्त को परमगति कहा गया है; जिसे प्राप्त करके जीव पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। वह मेरा परम धाम है।
श्लोक 22
हे अर्जुन! उस परम पुरुष को केवल अनन्य भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है; वही परमेश्वर है, जिसमें सब प्राणी स्थित हैं।
श्लोक 23
हे श्रेष्ठ पुरुष! अब मैं उन कालों को बताऊँगा जिनमें योगी शरीर त्याग कर या तो पुनर्जन्म में लौटते हैं अथवा मुक्त हो जाते हैं।
श्लोक 24
अग्नि, प्रकाश, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण में देह त्याग करने वाले ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
श्लोक 25
धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन में देह त्याग करने वाले चन्द्रलोक को प्राप्त होकर पुनः लौट आते हैं।
श्लोक 26
ये दोनों मार्ग — श्वेत और कृष्ण — सनातन माने जाते हैं। इनमें से एक से जाकर जीव लौटकर नहीं आता और दूसरे से लौट आता है।
श्लोक 27
हे अर्जुन! योगी इन दोनों मार्गों को जानकर मोह से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 28
योगी यह सब जानकर वेद, यज्ञ, तप और दान आदि फलों से ऊपर उठकर परमगति को प्राप्त होता है।
अध्याय 9 – राजविद्या राजगुह्य योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! अब मैं तुझसे वह परम रहस्ययुक्त ज्ञान कहूँगा, जिसे जानकर तू सब पापों से मुक्त हो जाएगा।
श्लोक 2
यह विद्या राजविद्या और राजगुह्य है। यह पवित्रतम, प्रत्यक्ष अनुभवयोग्य, धर्म्य और सुलभ है तथा शाश्वत है।
श्लोक 3
जो लोग श्रद्धा नहीं रखते, वे इस धर्म को न पाकर मृत्यु के पश्चात् संसार में ही बार-बार जन्म लेते हैं।
श्लोक 4
यह सम्पूर्ण जगत् मुझसे व्याप्त है, जो अव्यक्त रूप से स्थित हूँ; सब प्राणी मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।
श्लोक 5
प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं — यह मेरा दिव्य योग है। मैं सब प्राणियों को धारण करता हूँ, परन्तु स्वयं उनसे असंग हूँ।
श्लोक 6
जैसे वायु आकाश में स्थित होकर सब ओर घूमती है, वैसे ही सब प्राणी मुझमें स्थित हैं।
श्लोक 7
कल्प के अंत में सब प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और कल्प के आरम्भ में मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।
श्लोक 8
मैं अपनी प्रकृति को बार-बार उत्पन्न करता हूँ और सम्पूर्ण जगत् को अनायास प्रकट करता हूँ।
श्लोक 9
हे अर्जुन! इन सब कर्मों से मैं असंग रहता हूँ और मुझे कर्म का कोई बन्धन नहीं होता।
श्लोक 10
मेरा आदेश पाकर प्रकृति सब चल-अचल प्राणियों को उत्पन्न करती है; इस प्रकार सब जगत् मेरी अधीनता में है।
श्लोक 11
मूर्ख लोग मुझे मनुष्य शरीर धारण किये हुए देखकर तुच्छ मानते हैं, क्योंकि वे मेरी परमार्थ स्वरूपता को नहीं जानते।
श्लोक 12
ऐसे अज्ञानी लोग व्यर्थ की आशाएँ, व्यर्थ के कर्म और व्यर्थ का ज्ञान रखते हैं और आसुरी तथा राक्षसी स्वभाव में स्थित रहते हैं।
श्लोक 13
परन्तु महात्मा लोग दैवी स्वभाव प्राप्त कर मुझे अचिन्त्य जानते हैं और एकनिष्ठ भाव से मेरी भक्ति करते हैं।
श्लोक 14
वे लोग निरंतर मेरा कीर्तन करते हैं, मेरे चरणों में प्रणाम करते हैं और भक्ति में लगे रहते हैं।
श्लोक 15
अन्य लोग ज्ञानयज्ञ द्वारा अनेक रूपों में मेरी पूजा करते हैं; वे मुझे एक रूप में, अनेक रूपों में और विश्वरूप में देखते हैं।
श्लोक 16
मैं ही यज्ञ हूँ, हवन हूँ, पितरों का तर्पण हूँ, औषधि हूँ, मन्त्र हूँ, घृत हूँ, अग्नि हूँ और आहुति हूँ।
श्लोक 17
मैं ही इस जगत का पिता, माता, धाता और पितामह हूँ; मैं ही वेद, ओंकार और ऋक्, साम और यजुर्वेद हूँ।
श्लोक 18
मैं ही लक्ष्य हूँ, पालक हूँ, स्वामी हूँ, साक्षी हूँ, आश्रय हूँ, सुहृद हूँ, उत्पत्ति, लय और आधार हूँ।
श्लोक 19
मैं ही उष्णता देता हूँ, वर्षा करता और रोकता हूँ। मैं अमृत और मृत्यु हूँ, सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
श्लोक 20
जो वेदों के ज्ञाता सोमपान करके यज्ञ करते हैं, वे पुण्य प्राप्त कर स्वर्गलोक जाते हैं और दिव्य सुखों का भोग करते हैं।
श्लोक 21
परन्तु जब उनका पुण्य समाप्त होता है, तब वे पुनः मृत्यु लोक में आ जाते हैं; इस प्रकार वे स्वर्ग के सुखों को प्राप्त कर पुनः चक्र में फँसते रहते हैं।
श्लोक 22
परन्तु जो अनन्य भाव से मेरी पूजा करते हैं, उनके योगक्षेम का मैं स्वयं पालन करता हूँ।
श्लोक 23
अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करने वाले वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं, परन्तु विधि से रहित होकर।
श्लोक 24
क्योंकि मैं ही सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ; परन्तु जो मुझे नहीं जानते, वे पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।
श्लोक 25
देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों के पूजक पितरों को, भूतों की पूजा करने वाले भूतों को और मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं।
श्लोक 26
जो कोई मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल भक्ति से अर्पित करता है, उसे मैं प्रेमपूर्वक स्वीकार करता हूँ।
श्लोक 27
हे अर्जुन! जो भी तू करता है, खाता है, अर्पण करता है, दान करता है और तप करता है, उसे मेरे लिए कर।
श्लोक 28
इस प्रकार कर्मफलों से मुक्त होकर तू मुझमें स्थित होगा और मुक्ति को प्राप्त होगा।
श्लोक 29
मैं सब प्राणियों में समान हूँ; न कोई मुझे प्रिय है न अप्रिय। परन्तु जो मेरी भक्ति करता है, वह मुझमें है और मैं उसमें।
श्लोक 30
यदि अत्यन्त पापी भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो वह साधु माना जाता है, क्योंकि उसका निश्चय सही है।
श्लोक 31
शीघ्र ही वह धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे अर्जुन! जान ले कि मेरा भक्त कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।
श्लोक 32
हे अर्जुन! स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी, यदि वे मेरी शरण लेते हैं, तो परमगति को प्राप्त करते हैं।
श्लोक 33
तो फिर ब्राह्मण और राजर्षि भक्तजन तो अवश्य ही मुझे प्राप्त करेंगे। अतः इस दुःखमय संसार में भक्ति कर।
श्लोक 34
हे अर्जुन! मुझ पर मन लगाओ, मेरा भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त होगा।
अध्याय 10 – विभूति योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! अब तू मेरी बातें फिर सुन। क्योंकि तू मेरा प्रिय है, इसलिए मैं तेरे हित के लिए यह कहता हूँ।
श्लोक 2
न देवता और न ऋषि ही मेरे उद्भव को जानते हैं, क्योंकि मैं ही सबका कारण हूँ।
श्लोक 3
जो मुझे अजन्मा और अनादि भगवान जानता है, वह मनुष्यों में मोह से मुक्त होकर पाप से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 4-5
बुद्धि, ज्ञान, संशय का नाश, क्षमा, सत्य, इन्द्रियनिग्रह, मन का संयम, सुख, दुःख, उत्पत्ति, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति — ये सब भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 6
सप्तऋषि और चार मनु, जो सब प्राणियों के पूर्वज हैं, मेरे ही मन से उत्पन्न हुए।
श्लोक 7
जो पुरुष मेरी इन विभूतियों और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह अटल योग में स्थित होता है।
श्लोक 8
मैं ही सबका आदि, मध्य और अंत हूँ। जो ऐसा जानता है, वह मुझे भजता है।
श्लोक 9
वे महात्मा, जिनका मन मुझमें लगा है और जो मेरे गुणों का निरंतर कीर्तन करते हैं, वे एक-दूसरे को संतोष देते हैं।
श्लोक 10
ऐसे नित्ययुक्त भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर लें।
श्लोक 11
उन पर कृपा करके मैं उनके हृदय में स्थित होकर अज्ञानजनित अंधकार को दूर कर ज्ञानरूपी दीपक प्रज्वलित करता हूँ।
श्लोक 12-13
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! आप ही परमब्रह्म, परमधाम, परमपवित्र और सनातन पुरुष हैं। सब ऋषि और देवर्षि नारद, असित, देवल और व्यासजी भी ऐसा ही कहते हैं।
श्लोक 14
हे केशव! मैं आपकी इन बातों को सत्य मानता हूँ। न तो देवता और न ही दानव आपके स्वरूप को जान सकते हैं।
श्लोक 15
हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं को स्वयं ही जानते हैं। आप ही सबके उत्पत्ति के आदि हैं।
श्लोक 16
हे भगवान! आप अपनी वे दिव्य विभूतियाँ मुझसे कहें, जिनसे आप सब लोकों में व्यापे हुए हैं।
श्लोक 17
हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर आपका ध्यान करूँ? आप किस रूप में ध्यान करने योग्य हैं?
श्लोक 18
हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति और विभूतियों को मुझसे विस्तार से कहें, क्योंकि मैं आपकी अमृतमयी वाणी से तृप्त नहीं होता।
श्लोक 19
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! अब मैं तुझसे अपनी प्रमुख विभूतियाँ कहूँगा। क्योंकि विस्तार का कोई अंत नहीं है।
श्लोक 20
हे अर्जुन! मैं आत्मा हूँ, जो सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। मैं ही सबका आदि, मध्य और अंत हूँ।
श्लोक 21
आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, ज्योतिर्मानों में सूर्य, मरुतों में मरिचि और नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।
श्लोक 22
वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र और इन्द्रियों में मन तथा प्राणियों में चेतना हूँ।
श्लोक 23
रुद्रों में शंकर, यक्ष-राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि और पर्वतों में मेरु हूँ।
श्लोक 24
पुरोहितों में ब्रिहस्पति, सेनानायकों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र हूँ।
श्लोक 25
महर्षियों में भृगु, शब्दों में ओंकार, यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों में हिमालय हूँ।
श्लोक 26
वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।
श्लोक 27
घोड़ों में अमृत से उत्पन्न उच्चैःश्रवा, ऐरावत हाथियों में और मनुष्यों में राजा हूँ।
श्लोक 28
अस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, सर्पों में वासुकि और नागों में अनन्त हूँ।
श्लोक 29
जलचरों में वरुण, पितरों में अर्यमा, यम में यमराज और दैत्यों में प्रह्लाद हूँ।
श्लोक 30
गणनायकों में काल, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़ और शुद्ध करने वालों में वायु हूँ।
श्लोक 31
शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर और नदियों में गंगा हूँ।
श्लोक 32
सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत मैं हूँ; विद्या में आध्यात्मिक विद्या और वाद-विवाद में तर्क हूँ।
श्लोक 33
अक्षरों में ‘अ’ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं ही अक्षय काल हूँ और सृष्टि को धारण करने वाला हूँ।
श्लोक 34
सब भक्षकों में मृत्यु और उत्पन्न होने वालों में जीवन हूँ। स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।
श्लोक 35
सामवेद के गीतों में बृहत्साम और छन्दों में गायत्री हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त हूँ।
श्लोक 36
जुआ में जुआ, तेजस्वियों का तेज, विजयी लोगों की विजय और साहसियों का साहस हूँ।
श्लोक 37
वृ्ष्णियों में वासुदेव, पाण्डवों में अर्जुन और मुनियों में व्यास, कवियों में शुकाचार्य हूँ।
श्लोक 38
दण्ड देने वालों में दण्ड, विजय की चाह रखने वालों की नीति और मौन रहस्य हूँ। मैं ज्ञानियों का ज्ञान हूँ।
श्लोक 39
हे अर्जुन! मैं सब प्राणियों का बीज हूँ। जो भी अस्तित्व में है, वह बिना मेरे नहीं रह सकता।
श्लोक 40
हे अर्जुन! मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने केवल संक्षेप में ही कहा है।
श्लोक 41
जो भी वस्तु तेज, शोभा और शक्ति से युक्त है, जान ले कि वह मेरा ही अंश है।
श्लोक 42
हे अर्जुन! इस विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश से धारण करता हूँ।
अध्याय 11 – विश्वरूप दर्शन योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! आपकी करुणा से मैंने यह परम रहस्ययुक्त अध्यात्म-तत्त्व सुना है और अब मेरा मोह दूर हो गया है।
श्लोक 2
हे कमलनयन! मैंने आपसे विस्तार से प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश सुना है तथा आपकी अक्षय महिमा भी सुनी है।
श्लोक 3
हे पुरुषोत्तम! आप वही कहते हैं जो स्वयं हैं। अब मैं आपके उस दिव्य रूप को देखना चाहता हूँ।
श्लोक 4
हे भगवान! यदि आप मुझे देखने योग्य समझते हैं, तो कृपा करके मुझे अपना अविनाशी विश्वरूप दिखाइए।
श्लोक 5
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! अब तू मेरे सैकड़ों और हजारों रूपों को देख, जो विविध प्रकार के और अद्भुत हैं।
श्लोक 6
आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों और मरुतों को देख; और ऐसे अद्भुत रूप देख जिन्हें पहले कभी किसी ने नहीं देखा।
श्लोक 7
हे अर्जुन! अब तू सम्पूर्ण चराचर जगत् को एक स्थान में मेरे शरीर में देख।
श्लोक 8
परन्तु तू मुझे अपने इन नेत्रों से नहीं देख सकेगा; इसलिए मैं तुझे दिव्य नेत्र देता हूँ।
श्लोक 9
संजय ने कहा — हे राजन! ऐसा कहकर भगवान ने अर्जुन को अपना दिव्य रूप दिखाया।
श्लोक 10-11
उस रूप में अनन्त मुख, नेत्र और अद्भुत दर्शन थे; दिव्य आभूषणों और शस्त्रों से युक्त वह अद्भुत और अनन्त रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित कर रहा था।
श्लोक 12
जैसे हजार सूर्यों का प्रकाश एक साथ आकाश में फैल जाए, वैसा ही वह विश्वरूप भगवान का प्रकाश था।
श्लोक 13
अर्जुन ने उस एक रूप में सम्पूर्ण विश्व को विभक्त और एकत्र देखा।
श्लोक 14
अर्जुन आश्चर्य से भरकर भगवान के सामने झुक गया और हाथ जोड़कर बोला।
श्लोक 15
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! मैं आपके शरीर में देवताओं, नाना प्राणीसमूहों, ब्रह्मा को कमलासन पर बैठे और सब ऋषि तथा दिव्य नागों को देखता हूँ।
श्लोक 16
मैं आपके अनन्त रूप को, जिसकी कोई सीमा नहीं है, देखता हूँ। सूर्य और अग्नि जैसे तेजस्वी मुख और नेत्र चारों ओर फैले हुए हैं।
श्लोक 17
आपको मुकुटधारी, गदायुक्त और चक्रधारी देखता हूँ। आप सब ओर से ज्योतिर्मय और अत्यन्त दुष्प्रतिम हैं।
श्लोक 18
आप ही परम अक्षर, परम धाम और परम धर्मरक्षक हैं।
श्लोक 19
आपका रूप अनादि, मध्यम और अंत रहित है; अनन्त शक्ति से युक्त और सूर्य-ज्योति के समान जगमगाता है।
श्लोक 20
आपके द्वारा आकाश और पृथ्वी सब ओर व्याप्त हैं; यह सब तीनों लोक आपका दर्शन कर भय से कांप रहे हैं।
श्लोक 21
देवता सब आपके भीतर प्रवेश कर रहे हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी स्तुति कर रहे हैं।
श्लोक 22
रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुत, पितर, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धगण सब आपको विस्मय से देख रहे हैं।
श्लोक 23
हे महाबाहो! आपके विशाल रूप को अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ और उदर सहित देख सब भयभीत हो रहे हैं।
श्लोक 24
आकाश को छूते हुए आपके विराट रूप को देख मेरा मन भी भय और आश्चर्य से भर गया है।
श्लोक 25
हे विष्णु! आपके दहकते दाँतों और अग्नि जैसे तेजस्वी मुखों को देख सब दिशाएँ कांप रही हैं।
श्लोक 26-27
धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने-अपने सेनापतियों सहित आपके भीतर प्रवेश कर रहे हैं। भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमारे भी अनेक वीर योद्धा भी।
श्लोक 28-29
जैसे बहुत सी नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, वैसे ही सब योद्धा आपके दहकते मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
श्लोक 30
जैसे पतंगे अग्नि में जलने को दौड़ते हैं, वैसे ही सब योद्धा आपके मुखों में प्रवेश कर नष्ट हो रहे हैं।
श्लोक 31
आप अपने अग्निमय मुखों से सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर रहे हैं और आपकी उग्र ज्योतियाँ सब ओर फैल रही हैं।
श्लोक 32
भगवान ने कहा — मैं काल हूँ, जो लोकों का संहार करने के लिए आया हूँ। अब तेरे बिना भी सब योद्धा मारे जाएंगे।
श्लोक 33
इसलिए उठ! यश प्राप्त कर! अपने शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य का भोग कर। इन्हें मैंने पहले ही मारा हुआ मान ले।
श्लोक 34
तू केवल निमित्त मात्र बन जा। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य सब योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं।
श्लोक 35
संजय ने कहा — इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने काँपते हुए हाथ जोड़कर उनसे कहा।
श्लोक 36
अर्जुन ने कहा — हे हृषीकेश! आपका नाम लेकर जगत हर्षित होता है और सब दानव भय से भागते हैं।
श्लोक 37
हे महात्मा! आपसे बड़ा कोई नहीं है। इसलिए आप ही ब्रह्मा से भी पूजनीय हैं।
श्लोक 38
आप आदि देव, सनातन पुरुष और जगत के आधार हैं। आप ही ज्ञाता और ज्ञेय हैं।
श्लोक 39
आप वायु, यम, अग्नि, चन्द्र, प्रजापति और पितामह भी हैं। इसलिए मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हूँ।
श्लोक 40
आपको सब ओर से प्रणाम! आप अनन्त बल और प्रभाव से युक्त हैं।
श्लोक 41-42
यदि मैंने आपको मित्र मानकर या हँसी में अनजाने में अपमान किया हो, तो उसे क्षमा करें।
श्लोक 43
आप पिता के समान, गुरु और पूजनीय हैं। आपके समान कोई नहीं है।
श्लोक 44
इसलिए मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ और आपकी महिमा को सहन करना कठिन है।
श्लोक 45
आपका अद्भुत रूप देखकर मैं प्रसन्न भी हूँ और भयभीत भी।
श्लोक 46
हे देवेश! मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे वही चारभुज रूप दिखाएँ।
श्लोक 47
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! यह मेरा विश्वरूप देखकर देवता भी सदा लालायित रहते हैं।
श्लोक 48
न तो वेद, न तप, न दान और न यज्ञ द्वारा इस रूप को देखा जा सकता है।
श्लोक 49
हे अर्जुन! भयभीत मत हो और शोक मत करो। अब तू मेरा वही प्रिय रूप देख।
श्लोक 50
संजय ने कहा — ऐसा कहकर भगवान ने अर्जुन को अपना शांत चारभुज रूप दिखाया और फिर सुन्दर दो भुजाओं वाला रूप भी दिखाया।
श्लोक 51
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! अब यह आपका सौम्य रूप देखकर मेरा मन स्थिर हो गया है।
श्लोक 52
भगवान ने कहा — यह रूप देखना कठिन है; देवता भी इसे देखने के इच्छुक रहते हैं।
श्लोक 53
न तो वेद, न तप, न दान और न यज्ञ से मेरा इस रूप में दर्शन हो सकता है।
श्लोक 54
परन्तु अनन्य भक्ति से ही मुझे इस रूप में जाना, देखा और प्राप्त किया जा सकता है।
श्लोक 55
हे अर्जुन! जो पुरुष निरंतर मेरा स्मरण करता है, अनन्य भक्ति करता है, मेरा सेवक है और आसक्ति-रहित है, वह मुझे प्राप्त होता है।
अध्याय 12 – भक्ति योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! जो आपके प्रति अनन्य भक्ति करते हैं और जो अव्यक्त ब्रह्म का ध्यान करते हैं, उनमें से श्रेष्ठ कौन है?
श्लोक 2
भगवान ने कहा — जो मुझ पर अनन्य प्रेम से भक्ति करते हैं और मुझ पर ध्यान लगाते हैं, वे मुझे परम प्रिय हैं।
श्लोक 3-4
परन्तु जो अविनाशी, अव्यक्त, सर्वत्र व्यापी, अचल, अकल्पनीय ब्रह्म का ध्यान करते हैं और समभाव रखते हुए इन्द्रियों को वश में करते हैं, वे भी मुझे प्राप्त होते हैं।
श्लोक 5
जो अव्यक्त का ध्यान करते हैं, उनके लिए मार्ग कठिन है, क्योंकि शरीरधारी के लिए अव्यक्त का ध्यान करना कठिन है।
श्लोक 6-7
परन्तु जो मेरे प्रति मन और बुद्धि को लगाते हैं और अनन्य भाव से मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही संसार-सागर से पार कर देता हूँ।
श्लोक 8
यदि तू मुझमें मन और बुद्धि लगा, तो तू निश्चय ही मुझमें निवास करेगा।
श्लोक 9
यदि तू यह करने में असमर्थ है, तो अभ्यासयोग द्वारा मेरा ध्यान कर।
श्लोक 10
यदि तू अभ्यासयोग भी नहीं कर सकता, तो मेरे लिए कर्म कर; ऐसा करने से भी तू सिद्धि को प्राप्त होगा।
श्लोक 11
यदि यह भी न कर सके, तो सब कर्मों का त्याग कर मुझे अर्पण कर।
श्लोक 12
ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है, ध्यान से श्रेष्ठ कर्म-त्याग है और कर्म-त्याग से शांति प्राप्त होती है।
श्लोक 13-14
जो भक्त किसी से द्वेष नहीं करता, सबके प्रति मित्रभाव रखता है, दया करता है, अहंकार-रहित, क्षमाशील और स्थिर बुद्धि वाला है, तथा मुझमें मन लगाता है — वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 15
जिससे कोई भयभीत नहीं होता और जो स्वयं भी किसी से भयभीत नहीं होता, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
श्लोक 16
जो आकांक्षारहित, शुद्ध, निपुण, उदासीन और दुःख-सुख में सम रहता है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 17
जो निंदा और प्रशंसा में समान रहता है, मौन रहता है, सब ओर संतुष्ट रहता है और भक्ति में स्थिर रहता है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 18-19
जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान में समान है, शीत-उष्ण और सुख-दुःख में समान है, आसक्ति-रहित है, स्थिर बुद्धि और भक्ति में लगे हुए है — वह मुझे परम प्रिय है।
श्लोक 20
जो भक्त अमृतमय धर्म का पालन करते हुए मुझमें अनन्य श्रद्धा रखते हैं, वे मुझे परम प्रिय हैं।
अध्याय 13 – क्षेत्र–क्षेत्रज्ञ विभाग योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! मैं जानना चाहता हूँ कि क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता), ज्ञान और ज्ञेय क्या हैं।
श्लोक 2
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और जो इसे जानता है वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
श्लोक 3
हे अर्जुन! तू जान कि सब शरीरों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है।
श्लोक 4
अब तू मुझसे सुन कि क्षेत्र क्या है, उसका स्वरूप कैसा है और उसमें क्या परिवर्तन होते हैं।
श्लोक 5
ऋषियों ने, वेदों में और तत्त्वदर्शी मुनियों ने इसका वर्णन किया है।
श्लोक 6-7
पंचमहाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त, दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच विषय,
इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, संयोग और चेतना — यह सब क्षेत्र कहा गया है।
श्लोक 8-12
नम्रता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, शुद्धि, स्थिरता, आत्मसंयम,
इन्द्रियनिग्रह, वैराग्य, जन्म-मरण-दुःख का चिंतन,
वैराग्य, अनासक्ति, समत्व, आत्म-ज्ञान और सत्य-तत्त्व का चिंतन —
यह सब ज्ञान है, और इसके विपरीत सब अज्ञान है।
श्लोक 13
अब मैं तुझे उस ज्ञेय के विषय में बताता हूँ जिसे जानकर अमरत्व को प्राप्त होता है।
श्लोक 14
वह सब ओर हाथ-पाँव वाला, सब ओर नेत्र, मुख और कान वाला,
सबको व्याप्त करने वाला है।
श्लोक 15
इन्द्रियों का विषय होते हुए भी उनसे रहित, सबको संभालते हुए भी उनसे परे है।
श्लोक 16
वह सब प्राणियों में बाहर और भीतर है, चल-अचल सबमें है,
सुखद और सूक्ष्म है — इसलिए अज्ञेय है।
श्लोक 17
वह दूर भी है और निकट भी है। वह अविभक्त है, फिर भी प्राणियों में विभक्त-सा प्रतीत होता है।
श्लोक 18
वह सब प्राणियों का पालनकर्ता, संहारकर्ता और उत्पादक है।
वह प्रकाश-स्वरूप और अज्ञान से परे है।
श्लोक 19
यह क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय — तीनों का संक्षेप मैंने बताया। जो इसे जानता है वह मुझे प्राप्त होता है।
श्लोक 20
प्रकृति और पुरुष — ये दोनों अनादि हैं। सभी विकार और गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 21
प्रकृति कारण है कार्य और करण की। पुरुष कारण है सुख-दुःख के अनुभव का।
श्लोक 22
पुरुष ही प्रकृति के गुणों का भोग करता है। गुणों से आसक्ति के कारण ही जीव अच्छे-बुरे योनियों में जन्म लेता है।
श्लोक 23
जो पुरुष परमेश्वर को सब शरीरों में स्थित, साक्षी, अनुमोदक, भर्ता और नियंता जानता है — वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्लोक 24
जो पुरुष क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और प्रकृति-पुरुष के रहस्य को जानता है, वह किसी भी अवस्था में उत्पन्न होकर भी मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्लोक 25
कुछ ध्यान के द्वारा, कुछ ज्ञान के द्वारा और कुछ कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को देखते हैं।
श्लोक 26
कुछ लोग दूसरों से सुनकर उपासना करते हैं। ऐसे लोग भी मृत्यु को पार कर जाते हैं।
श्लोक 27
जो कुछ भी उत्पन्न होता है, चाहे चर हो या अचर, जान ले कि वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होता है।
श्लोक 28
जो पुरुष सब प्राणियों में समान परमात्मा को देखता है, वह आत्मा को नष्ट नहीं करता।
श्लोक 29
जो सबको समान रूप से देखता है, वह परब्रह्म को देखता है।
श्लोक 30
जब वह देखता है कि सब क्रियाएँ प्रकृति ही करती है और आत्मा अकर्मा है, तब वह देखता है।
श्लोक 31
जब वह देखता है कि सब जीव एक परमात्मा में स्थित हैं, तब वह परमात्मा को प्राप्त होता है।
श्लोक 32
वह परमात्मा अनादि, गुणातीत और अविनाशी है।
श्लोक 33
जैसे आकाश सर्वव्यापी होकर भी अशुद्धियों से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा शरीर में स्थित होकर भी लिप्त नहीं होता।
श्लोक 34
जैसे सूर्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा शरीर को प्रकाशित करता है।
श्लोक 35
जो पुरुष क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद जान लेता है और प्रकृति-पुरुष को पहचान लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
अध्याय 14 – गुणत्रय विभाग योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! मैं तुझे फिर वह परम ज्ञान बताऊँगा, जिसे जानकर सब ऋषि परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
श्लोक 2
इस ज्ञान को प्राप्त करके, वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होकर जन्म-मरण से मुक्त हो गए।
श्लोक 3
हे अर्जुन! मेरी महा ब्रह्म (प्रकृति) सब प्राणियों की जननी है। मैं उसमें बीज रूप से गर्भ डालता हूँ और उसी से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 4
सभी योनियों में जो भी प्राणी उत्पन्न होते हैं, उनका गर्भाधान प्रकृति है और उनका पिता मैं हूँ।
श्लोक 5
सत्त्व, रज और तम — ये तीन गुण प्रकृति के हैं, जो शरीर में बंधन डालते हैं।
श्लोक 6
सत्त्व गुण निर्मल है और प्रकाश उत्पन्न करता है; वह सुख और ज्ञान से बाँधता है।
श्लोक 7
रजोगुण कामनाओं से उत्पन्न होता है और आसक्ति तथा कर्म से बाँधता है।
श्लोक 8
तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है; यह प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बाँधता है।
श्लोक 9
सत्त्व सुख से, रज कर्म से और तम प्रमाद से बंधन डालता है।
श्लोक 10
कभी सत्त्व रज और तम पर प्रबल होता है, कभी रज सत्त्व और तम पर, और कभी तम सत्त्व और रज पर।
श्लोक 11
जब शरीर में ज्ञान और प्रकाश उत्पन्न होता है, तब जानो कि सत्त्व प्रबल हुआ है।
श्लोक 12
जब लोभ, चेष्टा, कर्म, अशांति और कामनाएँ प्रबल होती हैं, तब जानो कि रज प्रबल हुआ है।
श्लोक 13
अज्ञान, आलस्य, प्रमाद और मोह की वृद्धि तमोगुण की प्रधानता को दर्शाती है।
श्लोक 14
यदि सत्त्व प्रबल होने पर मृत्यु हो, तो वह उच्च लोकों को जाता है।
श्लोक 15
यदि रज प्रबल होने पर मृत्यु हो, तो वह कर्मशील मनुष्यों में जन्म लेता है।
तम प्रबल होने पर मृत्यु हो, तो वह अज्ञानी योनियों में जन्म लेता है।
श्लोक 16
सत्त्व का फल ज्ञान है, रज का फल दुःख है और तम का फल अज्ञान है।
श्लोक 17
सत्त्व से ज्ञान उत्पन्न होता है, रज से लोभ और तम से प्रमाद, आलस्य और मोह।
श्लोक 18
सत्त्वगुणी ऊपर उठते हैं, रजोगुणी बीच में रहते हैं और तमोगुणी अधोगति को जाते हैं।
श्लोक 19
जब ज्ञानी देखता है कि सभी गुण ही कर्ता हैं और आत्मा निर्लिप्त है, तब वह परम सत्य को जान लेता है।
श्लोक 20
जब आत्मा इन तीनों गुणों से परे हो जाता है, तब वह जन्म-मरण से मुक्त हो अमरत्व को प्राप्त होता है।
श्लोक 21
अर्जुन ने पूछा — गुणों के अतिक्रांत पुरुष के लक्षण क्या हैं? वह कैसे आचरण करता है और गुणों को कैसे पार करता है?
श्लोक 22-23
भगवान ने कहा — जो सुख-दुःख, मान-अपमान, मिट्टी-पत्थर-सोने को समान देखता है, मित्र-शत्रु में समान रहता है और आसक्ति-रहित है, वह गुणों से परे है।
श्लोक 24-25
जो सब ओर समान दृष्टि रखता है, सब ओर स्थिर है, किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता और कर्म का फल नहीं चाहता, वही गुणातीत है।
श्लोक 26
जो अनन्य भक्ति से मेरी उपासना करता है, वही इन तीनों गुणों को पार कर ब्रह्म को प्राप्त होता है।
श्लोक 27
क्योंकि मैं ही अमृत, अविनाशी धर्म और परम आनन्द का धाम हूँ।
अध्याय 15 – पुरुषोत्तम योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — कहा जाता है कि यह संसार-अश्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़ ऊपर है और शाखाएँ नीचे हैं। उसके पत्ते वेद हैं और जो इसे जानता है, वह वेद को जानता है।
श्लोक 2
उसकी शाखाएँ ऊपर और नीचे फैली हुई हैं और वे गुणों से पोषित होती हैं। उसके अंकुर इन्द्रियों के विषय हैं और उसकी जड़ें नीचे मनुष्य-लोक में कर्मों को बाँधती हैं।
श्लोक 3-4
उस वृक्ष का वास्तविक रूप यहाँ नहीं जाना जाता। उसका आदि, मध्य और अंत न दिखाई देता है। दृढ़ वैराग्य-रूप शस्त्र से उसका छेदन करके, उस धाम को खोजना चाहिए जहाँ जाने पर मनुष्य फिर लौटकर नहीं आता। वही परम पुरुष का धाम है।
श्लोक 5
जो अहंकार, आसक्ति और वासनाओं से रहित, शांति में स्थित और सुख-दुःख में सम रहते हैं, वे उस धाम को प्राप्त होते हैं।
श्लोक 6
मेरा वह परम धाम न सूर्य से प्रकाशित होता है, न चन्द्र से, न अग्नि से। वहाँ पहुँचने पर जीव पुनः जन्म को नहीं लौटता।
श्लोक 7
जीवात्मा मेरे अंश के रूप में इस संसार में जीवित प्राणियों में स्थित है। वही मन और पाँच इन्द्रियों को धारण करता है।
श्लोक 8
जैसे वायु सुगंध को ले जाती है, वैसे ही जीवात्मा शरीर से इन्द्रियों को लेकर दूसरे शरीर में जाता है।
श्लोक 9
वह कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक के द्वारा विषयों का भोग करता है।
श्लोक 10
मूर्ख लोग इसे नहीं समझते, परन्तु ज्ञान नेत्र वाले इसे देखते हैं।
श्लोक 11
यत्नशील योगी आत्मा को शरीर से भिन्न जानता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख पाते।
श्लोक 12
सूर्य में जो प्रकाश है, वही मेरा तेज है और वही चन्द्र और अग्नि में भी है।
श्लोक 13
मैं पृथ्वी में प्रवेश करके प्राणियों को जीवन देता हूँ और सोमरस के द्वारा सब वनस्पतियों को पोषित करता हूँ।
श्लोक 14
मैं अग्नि बनकर सब प्राणियों के भीतर पाचन करता हूँ और चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
श्लोक 15
मैं सबके हृदय में स्थित हूँ। मुझसे स्मृति, ज्ञान और अपोहन होती है। मैं ही वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ और वेदांत का कर्ता तथा वेद का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।
श्लोक 16
इस संसार में दो पुरुष हैं — क्षर और अक्षर। सब प्राणी क्षर कहलाते हैं और आत्मा अक्षर कहलाती है।
श्लोक 17
परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है — वह परम पुरुषोत्तम है, जो तीनों लोकों को धारण करता है और अविनाशी है।
श्लोक 18
क्योंकि मैं क्षर और अक्षर से भी परे हूँ, इसलिए मुझे वेद और शास्त्रों में पुरुषोत्तम कहा गया है।
श्लोक 19
जो मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम रूप से जानता है, वह सबकुछ जानने वाला है और पूरे मन से मेरी भक्ति करता है।
श्लोक 20
हे अर्जुन! मैंने यह परम रहस्य बताया। इसे जानकर मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है और सिद्धि प्राप्त करता है।
अध्याय 16 – दैवासुर सम्पद्विभाग योग
श्लोक 1
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! अब मैं तुझे उन गुणों का वर्णन करता हूँ जो दैवी (दैवी संपदा) और आसुरी (आसुरी संपदा) कहलाते हैं।
श्लोक 2
दैवी संपदा से मनुष्य में भयlessness (भयहीनता), सत्य बोलना, सहनशीलता, दया, दान, शुद्धता, सहिष्णुता, नम्रता, ज्ञान, आत्मसंयम और धर्म की वृद्धि होती है।
श्लोक 3
ये गुण मनुष्य को उच्च कोटि का और पुण्यशील बनाते हैं।
श्लोक 4
आसुरी संपदा में अहंकार, दम्भ, क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, कपट, मूर्खता, आलस्य और अज्ञान शामिल हैं।
श्लोक 5
जो पुरुष दैवी गुणों को अपनाता है, वह सुख और मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्लोक 6
जो पुरुष आसुरी गुणों में लिप्त रहता है, वह जन्म-मरण के बंधन में फंसा रहता है।
श्लोक 7
दैवी गुणों वाले मनुष्य ईश्वर की भक्ति करते हैं और दूसरों के हित में कार्य करते हैं।
श्लोक 8
वे न केवल अपने लिए, बल्कि सब प्राणियों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
श्लोक 9
आसुरी संपदा वाला मनुष्य केवल अपने स्वार्थ में लिप्त रहता है और दूसरों को नुकसान पहुँचाता है।
श्लोक 10
ऐसे व्यक्ति अहंकारी, हिंसक, लोभी और अभिमानी होते हैं।
श्लोक 11
उन्होंने जो कर्म किए हैं, वे उन्हें जन्मों तक बाँधते हैं और दुःख और अज्ञान की ओर ले जाते हैं।
श्लोक 12
दैवी गुण से संपन्न पुरुष शांत, धर्मशील, ज्ञानी और निर्भीक होता है।
श्लोक 13
आसुरी गुण वाले पुरुष अधर्म, क्रोधी, लोभी और भयभीत रहते हैं।
श्लोक 14
इस प्रकार गुणों का भेद जानकर पुरुष अपने कर्मों और आचरण को सुधार सकता है।
श्लोक 15
दैवी गुण अपनाने वाले मनुष्य परमात्मा के निकट पहुँचते हैं।
श्लोक 16
आसुरी गुणों वाले नाश और दुःख के मार्ग पर चलते हैं।
श्लोक 17
हे अर्जुन! इसलिए बुद्धिमान पुरुष दैवी गुणों को अपनाकर संसार और मोक्ष दोनों का साधन करता है।
अध्याय 17 – श्रद्धात्रय विभाग योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! मनुष्य की श्रद्धा के प्रकार क्या हैं? वह कौन-सी होती है, और किस प्रकार के लोग किस प्रकार की श्रद्धा रखते हैं?
श्लोक 2
भगवान ने कहा — लोगों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार होती है। जो मनुष्य सत्त्व, रज और तम गुण से प्रभावित हैं, उसकी श्रद्धा भी उसी प्रकार की होती है।
श्लोक 3
सत्त्वगुण से प्रेरित व्यक्ति सत्य और शुद्धता में विश्वास करता है।
श्लोक 4
रजोगुण से प्रभावित व्यक्ति तामसिक और कर्मशील होने पर भी असंतुलित रहता है।
श्लोक 5
तमोगुण से प्रभावित व्यक्ति अज्ञान और अंधविश्वास में विश्वास करता है।
श्लोक 6
जो व्यक्ति वेदों और शास्त्रों में लिखी हुई विधियों के अनुसार यज्ञ करता है, वह सत्त्वगुण वाला कहलाता है।
श्लोक 7
जो केवल दिखावे के लिए यज्ञ करता है, लोभ और मान के लिए, वह रजोगुण वाला है।
श्लोक 8
जो यज्ञ नहीं करता, या फिर केवल नियमों का उल्लंघन करता है, वह तमोगुण वाला है।
श्लोक 9
दान भी इसी प्रकार के तीन प्रकार के होते हैं।
श्लोक 10
सत्त्वगुण वाला दान बिना आशा और भय के, सत्य और धर्म के लिए करता है।
श्लोक 11
रजोगुण वाला दान अपने लाभ और प्रतिष्ठा के लिए करता है।
श्लोक 12
तमोगुण वाला दान दिखावे और अपमानजनक तरीके से किया जाता है।
श्लोक 13-14
भोजन भी तीन प्रकार का होता है — सत्त्व, रज और तम।
श्लोक 15-16
सत्त्वगुण वाला भोजन शुद्ध, पौष्टिक और संतुलित होता है।
श्लोक 17
रजोगुण वाला भोजन स्वादिष्ठ, परंतु असंतुलित और अधिक होता है।
श्लोक 18
तमोगुण वाला भोजन उबला, अधजला या खराब और हानिकारक होता है।
श्लोक 19-20
संयम, तप और उपवास भी तीन प्रकार के हैं। सत्त्वगुण वाला संयम धर्म में, रजोगुण वाला स्वार्थ और तमोगुण वाला आलस्य और प्रमाद में रहता है।
श्लोक 21
इस प्रकार श्रद्धा, दान, यज्ञ, भोजन और संयम — सब गुणों के अनुसार अलग-अलग होते हैं।
श्लोक 22
जो पुरुष सत्त्वगुण से प्रभावित हैं, वे सुख, ज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं।
श्लोक 23
रजोगुण वाले पुरुष कर्म और इच्छाओं के बंधन में रहते हैं।
श्लोक 24
तमोगुण वाले पुरुष अज्ञान और अंधविश्वास में लिप्त रहते हैं।
श्लोक 25
इस प्रकार, हे अर्जुन! श्रद्धा और आचरण के आधार पर मनुष्य का स्वरूप, धर्म और परिणाम निर्धारित होता है।
अध्याय 18 – मोक्ष–सन्न्यास योग
श्लोक 1
अर्जुन ने कहा — हे भगवान! कृपया मुझे कर्म-संन्यास और ज्ञान-संन्यास के अर्थ स्पष्ट करें। मैं यह जानना चाहता हूँ कि संन्यास और त्याग में क्या भेद है।
श्लोक 2
भगवान ने कहा — हे अर्जुन! संन्यास कहने का अर्थ है इच्छाओं के द्वारा प्रेरित कर्मों का त्याग।
श्लोक 3
त्याग कहने का अर्थ है फल की इच्छा से रहित कर्म करना।
श्लोक 4
जो कर्म केवल अपने धर्म की सिद्धि और ईश्वर की भक्ति के लिए किए जाते हैं, उन्हें त्याग कहते हैं।
श्लोक 5-6
जो कर्म इन्द्रियों के सुख, लोभ और स्वार्थ के लिए किए जाते हैं, वह संन्यास नहीं है।
श्लोक 7
हे अर्जुन! ज्ञान और कर्मयोग से मनुष्य अपने कर्मों से बंधनमुक्त होता है।
श्लोक 8
जो व्यक्ति दैवी गुणों से प्रेरित कर्म करता है, वह बुद्धिमान और धर्मशील कहलाता है।
श्लोक 9-11
सत्त्व, रज और तम — ये गुण कर्म और संन्यास दोनों में मिश्रित हैं।
श्लोक 12-13
सत्त्वगुण वाला कर्म धर्म और मोक्ष के लिए करता है।
रजोगुण वाला कर्म लोभ और कामनाओं के लिए करता है।
तमोगुण वाला कर्म अज्ञान और प्रमाद से प्रभावित होता है।
श्लोक 14-15
दान, तप और यज्ञ भी तीन प्रकार के होते हैं।
सत्त्वगुण वाला दान धर्म, सन्तोष और प्रेम से करता है।
रजोगुण वाला दान प्रतिष्ठा और मान के लिए करता है।
तमोगुण वाला दान दिखावे या अपमानजनक ढंग से किया जाता है।
श्लोक 16-17
कर्म का फल भी गुणों के अनुसार होता है। सत्त्वगुण से सुख और ज्ञान मिलता है। रजोगुण से कर्म का बंधन बढ़ता है। तमोगुण से अज्ञान और पाप बढ़ता है।
श्लोक 18-19
जो पुरुष गुणातीत होकर, अनन्य भक्ति से मुझमें स्थिर होता है, वह कर्मों से बंधनमुक्त हो जाता है।
श्लोक 20
जो पुरुष संन्यास और त्याग के मार्ग को अपनाता है, उसे मैं शीघ्र मोक्ष की ओर ले जाता हूँ।
श्लोक 21
हे अर्जुन! इस प्रकार संन्यास और त्याग के माध्यम से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 22
सर्वश्रेष्ठ संन्यास, त्याग और भक्ति के मार्ग से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होता है।
श्लोक 23
हे अर्जुन! अब तू शांति और स्थिरता के साथ युद्धभूमि में अपने धर्म का पालन कर।
श्लोक 24
जो पुरुष संन्यास और कर्मयोग से निर्लिप्त होकर मेरे प्रति समर्पित होता है, वह निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्लोक 25
इस प्रकार हे अर्जुन! मैंने तुझे संन्यास, त्याग और भक्ति का सम्पूर्ण रहस्य बताया।
श्लोक 26
जो पुरुष इस ज्ञान को आत्मसात करता है, वह जीवन-मरण के बंधनों से मुक्त होकर अनन्त शांति को प्राप्त होता है।
श्लोक 27
हे अर्जुन! अब तू आत्मविश्वास और श्रद्धा के साथ युद्धभूमि में अपने धर्म का पालन कर।
श्लोक 28
इस प्रकार से मैं तुझे सम्पूर्ण गीता का सार, ज्ञान और मार्ग बता चुका हूँ।



